तुम अकेले हो,
और कमरा भी बंद है,
कमरे में कोई आईना भी नहीं है,
अब तो अपना चेहरा उतार दो।
बहुत पहले जावेद अख्तर के मुहं से ये पंक्तियाँ सुनी थी। जेल जाने के बाद ये पंक्तियाँ अक्सर मेरे दिमाग में गूंजती रहती थी। मजेदार बात ये है की जेल में सच में कोई आईना नहीं होता। पता नहीं ये पंक्तियाँ किस संदर्भ में लिखी गयी होंगी। लेकिन जेल के विशालकाय बंद दरवाजे के पीछे राज्य सत्ता यहाँ बिना किसी मुखौटे या आवरण के पूरा का पूरा मुझे नंगा नज़र आया। दरअसल यहाँ किसी आवरण की जरूरत भी नहीं है. क्योकि यहाँ किसी की निगरानी नहीं है।
सरकार या राज सत्ता द्वारा किये जाने वाले जिस भी अपराध को आप समाज में दबे छुपे रूप में देखते है, आपको उसका एकदम नंगा रूप यहाँ जेल में दिखाई देगा, चाहे वह भ्रष्टाचार हो या क्रूर दमन। कभी कभी लगता है की जेल बनाने का एक बड़ा कारण शायद ये रहा होगा की यहाँ सत्ता अपने स्वाभाविक यानि नंगे रूप में बिना किसी आवरण के थोडा आराम फरमा सके।
लेकिन आश्चर्य की बात ये है की आम बंदी इस नंगेपन को आश्चर्य के रूप में नहीं देखते। उन्हें लगता है की बंदी को जेल प्रशासन से बेहतर व्यवहार की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। बस किसी भी तरह से यहाँ से निकलने के बारे में सोचना चाहिए। दरअसल आम बंदी भी जब जेल के विशालकाय गेट से अंदर घुसता है तो आमतौर पर वो भी अपनी मानवीयता को गेट के दरवाजे पर छोड़ देता है. या यो कहें की छोड़ने पर विवश कर दिया जाता है।
यही कारण है की जेल में जब भी आप किसी चीज की शिकायत करेंगे तो साथी बंदियों से ही यह तर्क सुनने को मिलता है- “अरे यह जेल है, कोई घर थोड़े ही है”। खाना खाने लायक नहीं होता – “अरे यह जेल है”। सुबह-सुबह लैट्रिन के लिए लम्बी लाइन लगानी पड़ती है – “अरे यह जेल है ना”। हर बीमारी में एक ही दवा पेरासिटामोल दी जाती है – “अरे यह जेल है ना”। अदालत में दिन भर भेड़ बकरियों की तरह लॉकअप में बंद रहना पड़ता है, जहां बंदियों को सबसे ज़्यादा तनाव इस बात का रहता है कि कहीं उनका पेट ना ख़राब हो जाये – “अरे भाई आप बंदी हैं, कोई इन्सान थोड़े ही ना हैं”।
आख़िर फिर जेल है क्या? सबसे लोकप्रिय जवाब शायद यही होगा, कि समाज में अपराध करके क़ानून व्यवस्था बिगाड़ने वालों को यहाँ लाया जाता है ताकि उन्हें सुधारा जा सके। इस सन्दर्भ में ज्यादातर आदर्शवादी लोग गाँधी का उद्धरण देते है- “जेल को अस्पताल में बदल देना चाहिए, जहाँ कैदी का इलाज हो सके और वो सही रास्ते पर आ सके। जेल अधिकारियों को डॉक्टरों में बदल देना चाहिए। कैदी को लगना चाहिए की जेल अधिकारी उसका दोस्त है” लेकिन सवाल ये है की जिन्हें इसकी ज़िम्मेदारी दी गयी है वे लोग कौन हैं? इसे समझने के लिए मैं डॉ ‘हैम गिनोत’ की मशहूर पुस्तक ‘टीचर एंड चाइल्ड‘ से एक उदाहरण देना चाहूँगा। “मैं यातना कैम्प का भुक्तभोगी हूं। मेरी आँखों ने वह देखा है जो शायद किसी को नहीं देखना चाहिए। गैस चैम्बर का निर्माण प्रशिक्षित इंजीनियरों ने किया है। बच्चों को ज़हर शिक्षित डॉक्टरों द्वारा दिया गया। नवजात बच्चों को प्रशिक्षित नर्सों ने मारा। बच्चों, महिलाओं को हाईस्कूल व विश्वविद्यालय में पढ़े लोगों ने गोली मारी”। वास्तव में ऐसे ही लोगों को भारत में ‘अपराधियों’ को सुधारने की ज़िम्मेदारी दी गई है। सच तो ये है की जेल प्रशासन बंदियों के साथ आमतौर पर जो व्यवहार करता है, उसे यदि बिना यूनिफार्म के जेल के बाहर किया जाये तो वह गंभीर अपराध की श्रेणी में आएगा।
अभी फिलहाल इस बहस को जाने देते हैं कि जिन्हें अपराधी कहा जाता है उनमें से 70 प्रतिशत विचाराधीन हैं। यानी उनका अपराध अभी साबित नहीं हुआ है। खुद नेशनल पुलिस कमीशन की रिपोर्ट [तीसरी रिपोर्ट] यह कहती है की 60 प्रतिशत गिरफ्तारी गैर जरूरी है। नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट यह बताती है की यहाँ कन्विक्शन रेट महज 26 प्रतिशत है। यानी 100 में से 74 लोग मुकदमे के बाद बरी हो जाते है।
यदि हम जेलों के इतिहास पर गौर करें तो हम देखेंगे कि जेल व्यवस्था पूँजीवाद की ही देन है। 18वीं-19वीं शताब्दी में ही यह वर्तमान रूप ग्रहण कर सकी है। इसके पहले दंड का प्रधान रूप सार्वजनिक शारीरिक दंड ही था। कोड़े लगाने से लेकर सरे आम फांसी पर लटकाने तक।
पूंजीवादी व्यवस्था श्रम के शोषण पर टिकी है। इस श्रम के शोषण को निर्बाध बनाये रखने व इसे लगातार तीव्र करने के लिए फैक्ट्री के अन्दर मजदूरों का अनुशासित रहना बहुत ज़रूरी है। ज़ाहिर है यह अनुशासन पूँजीवाद द्वारा थोपा हुआ ही होता है,क्योंकि इस अनुशासन का उद्देश्य श्रम का शोषण है। फैक्ट्री के अन्दर ‘टेलर सिस्टम’ से लेकर आज के ‘जस्ट इन टाइम’ सिस्टम तक को इसी सन्दर्भ में समझा जा सकता है, जहाँ अनुशासन का मतलब मजदूर के एक एक मिनट का इस्तेमाल करते हुए श्रम के शोषण को उच्चतम स्तर तक ले जाना होता है। फैक्ट्री में यह शोषण तभी निर्बाध रूप से जारी रह सकता है जब समाज में भी एक हद तक अनुशासन हो, जिसे शासक वर्ग की भाषा में कानून व्यवस्था कहते हैं।
जैसा की मार्क्स ने कहा है कि पूँजीवाद अपनी ही इमेज में पूरे समाज को गढ़ता है। इसलिए परिवार, स्कूल, फैक्ट्री से लेकर जेल तक जिस चीज़ पर अत्यधिक ज़ोर दिया जाता है, वह है अनुशासन। और स्पष्ट है कि हर जगह यह अनुशासन थोपा हुआ होता है, जिनका अपना एक निश्चित उद्देश्य होता है। जो उनके हितों के खिलाफ़ होता है जिन पर यह अनुशासन लादा जाता है। अनुशासन का पालन करवाने के लिए निगरानी बहुत ज़रूरी होती है। इस सन्दर्भ में चार्ली चैपलिन की मशहूर फिल्म ‘माडर्न टाइम्स’ याद कर सकते है। फैक्ट्री और जेल को इस तरह से डिजाइन किया जाता है की पूंजीपति मजदूरों – बंदियों पर हर समय नज़र रख सके। ठीक वैसे ही जैसे हम एक्वेरियम में कैद मछलियों पर नज़र रखते हैं। हालाँकि इस समय तो पूरे देश को ही एक एक्वेरियम में तब्दील किया जा रहा है। इसी अन्तर्निहित समानता के कारण मिशेल फूको जैसे विचारक परिवार, स्कूल, फैक्ट्री, जेल को एक ही केटेगरी में रखते हैं और तीनों में एक अन्योन्याश्रित सम्बन्ध देखते हैं जो एक दूसरे को बनाये रखने में सहयोग देते हैं। आख़िर स्कूल से ही उन्हें अनुशाषित मजदूर और कर्मचारी मिलते है।
पिता-पति-पूंजीपति-जेलर इसी अर्थ में ना सिर्फ एक निरंतरता बनाये रखने में मदद करते हैं वरन शासक वर्ग के हित में वैचारिक हेजेमनी [ग्राम्शी] बनाये रखने में भी मदद करते हैं। इस संदर्भ में यह तथ्य दिलचस्प है की मैकाले [T.B. Macaulay] ने ही वर्तमान शिक्षा व्यवस्था और वर्तमान भारतीय दंड संहिता दोनों की ही नींव रखी।
जेल पूंजीवादी समाज में यह भ्रम रचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है की हम सुरक्षित हैं। यानी जेल है तो समाज के बुरे लोगों को वहां भेजा जाता रहेगा और अच्छे लोग सुरक्षित रहेंगे। ठीक वैसे ही जैसे आप रोज़ अपने घर से कूड़ा निकाल कर बाहर कूड़ेदान में डालते हैं। और इस तरह अपने घर को साफ़ रखते हैं। इसलिए हमें इस बात पर जोर शोर से विश्वास दिलाया जाता है कि जेल नहीं होगी तो समाज गन्दा हो जायेगा। उन्हें इस तथ्य से कोई फ़र्क नहीं पड़ता की मनुष्य ने अपने इतिहास का 99.99 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा बिना जेल के गुज़ारा है। पूँजीवाद को बनाये रखने में यह भ्रम बहुत कारगर साबित होता है। ठीक इसी कारण से एंजेला डेविस जैसे आन्दोलनकारी बुद्धिजीवी जेल सुधार की बजाय जेल के खात्मे पर ज़ोर देती हैं।
दरअसल पूरी दुनिया में पूँजीवाद के दिखाने व खाने के दांत अलग-अलग होते हैं। और दोनों का अनिवार्य सहअस्तित्व होता है। सरकारी मानवाधिकार यदि दिखाने के दांत हैं तो जेल खाने के दांत हैं। जेल और पुलिस कस्टडी में ही आपका राजसत्ता के क्रूरतम रूप से सामना होता है। पूँजीवाद अपने ही बनाये नियमों को यहाँ पैरों तले रौंदता है। उदाहरण के लिए जेल में रेगुलर काम करने वाले कैदियों का वेतन सरकार द्वारा तय किये गए न्यूनतम वेतन से बहुत ही कम 720/- प्रति माह होता है। इसके अलावा गरीब दलित बंदियों में से बेगारों की एक पूरी फ़ौज होती है जिन्हें कभी भी, कहीं भी किसी भी काम में लगाया जा सकता है। बंदियों द्वारा सर्दियों में जेलर व अन्य अधिकारियो के पैर दबाने या सर में चम्पी करने का दृश्य आम होता है। समाज से गुलामी प्रथा ख़त्म नहीं हुई है बल्कि वह जेल में ट्रांसफर हो गयी है। ग़रीब दलित बंदियों के बारे में जेल प्रशासन की यह सोच होती है कि इतना काम और इतनी ख़राब स्थिति में तो यह जेल के बाहर ही रहते हैं, तो फिर इन्हें यहाँ सज़ा क्या महसूस होगी जबतक उनसे उससे ज़्यादा काम ना लिया जाये और उससे भी बुरी स्थिति में ना रखा जाये। इससे अमेरिका के ‘थॉमस जेफरसन’ की बात की याद ताज़ा हो जाती है, जो उसने वहां के गुलामों के बारे में कहा था। जो गुलामी से आज़ाद होने के बाद विभिन्न कारणों से जेलों में बंद थे, जेफरसन ने उस वक्त कहा कि इनसे जेल में कठोर काम लेने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि इसकी तो उन्हें आदत है। इसलिए उनका सुझाव था कि उन्हें जेल भेजने की बजाय उन्हें जिला बदर कर दिया जाये। यानि समाज का पिछड़पन और उसका गैरजनवादी होना जेल के अंदर की क्रूरता व दमन को और बढा देता है।
अमेरिका में तो प्रिजन-इंडस्ट्रियल गठजोड़ के कारण, जेल श्रम का शोषण वहां की पूँजीवादी साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है। भारत में भी तिहाड़ जेल से इसकी शुरुआत हो गई है, जहाँ कई निजी कम्पनियाँ अपने प्रोडक्ट का निर्माण बहुत मामूली वेतन देकर कैदियों से करा रही हैं। 1975 तक अमेरिका में कैदी, दवा उद्योग व उपभोक्ता उद्योग की बड़ी कंपनियों के लिए ‘गिनीपिग’ का भी काम करते थे। ‘जानसन’ व ‘डो केमिकल’ जैसी बड़ी कंपनियों ने अपने प्रयोगों में ना जाने कितने कैदियों को मारा है। इसलिए आप जब भी अपने मासूम बच्चों को ‘जानसन एंड जानसन’ का पावडर लगायें तो एक बार यह ज़रूर सोचें कि इस पाउडर की खुशबू के पीछे कैदियों की मौत की बदबू छिपी है।
पुनः भारत पर लौटें तो हम देखते हैं कि यहाँ ‘क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम’ में वर्ग, जाति, जेंडर जैसे सभी सामाजिक-वर्गीय पूर्वाग्रह घनीभूत रूप से मौजूद रहते हैं। सच तो यह है की क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में ‘क्रिमिनल’ संज्ञा नहीं विशेषण बन चुका है। यही कारण है कि भारत की जेलों में आदिवासी दलित मुस्लिम अपनी जनसंख्या अनुपात 39 प्रतिशत से कहीं ज्यादा 52 प्रतिशत तक है। ठीक वैसे ही जैसे अमेरिकी जेलों में काले लोगों का प्रतिशत 40 के आसपास है, जबकि जनसंख्या में उनका अनुपात महज 10 प्रतिशत ही है।
जेल जहाँ एक ओर अपराधियों के लिए ट्रेनिंग सेंटर का काम करता है [एक अनुमान के मुताबिक जेल से छूटने वाले 3 कैदियों में से 2 के दुबारा जेल आने की संभावना बढ़ जाती है।], वहीं दूसरी ओर बहुत हिंसक तरीके से सत्ता के सामने झुकना व समर्पण करना सिखाता है। जेल, बंदियों में इस बात का अहसास भरने का काम करता है की इस विशाल राज्य संरचना के सामने उसकी कोई औकात नहीं है। और सब कुछ चुपचाप सहने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं है। इसलिए जेल से निकलने के बाद इंसान कुछ कम ‘इन्सान’ रह जाता है। यानी समाज पर बोझ बढ़ जाता है। इसी अर्थ में जेल समाज पर एक बड़ा बोझ है। जैसे जैसे जेल बड़ी होती जाती है वैसे वैसे उसी अनुपात में समाज पर उसका बोझ भी बढ़ता जाता है।
जेल सज़ा के बारे में 1955 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक गाइड लाइन जारी की थी। भारत ने भी उस पर दस्तखत किए थे। उसका लब्बेलुआब यह था कि किसी को उसके परिवार व समुदाय से काट देना ही पर्याप्त सज़ा है। इसके अलावा सज़ा देना सामान्य परिस्थितियों में अमान्य है। जस्टिस ए एन मुल्ला के नेतृत्व में जेल सुधार पर बनी रिपोर्ट [1980-83] में साफ साफ यह कहा गया है की जेल के अंदर भी कैदी की गरिमा के साथ कोई खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। लेकिन ऐसी तमाम रिपोर्टो की तरह ये रिपोर्ट भी आज धूल खा रही है।
जेल प्रशासन सिर्फ इसी बात से थोड़ा डरता है की कहीं कैदी आत्महत्या ना कर ले। पूरे जेल की डिजाइन और निगरानी सिस्टम इस तरह का बनाया जाता है की सच में आत्महत्या करना बहुत कठिन होता है। जीवन का गला घोंटने और जीवन बचाने का ऐसा क्रूर बैलेंस आपको और कहीं नहीं मिलेगा। इसे ही शायद ‘चार्ल्स डिकेंस’ शरीर को बचाते हुए आत्मा को मारने का तरीका [soul destroying method] बताते है। चार्ल्स डिकेंस ने अमेरिकी जेलों का भ्रमण करने के बाद कहा कि यहां लोगों को जैसे रखा जाता है, वो व्यक्ति को जिंदा दफन करने [buried alive] के बराबर है।
लेकिन जब व्यवस्था का संकट बढ़ता है और जेल में राजनीतिक बंदियों और क्रांतिकारियों की आमद बढ़ने लगती है तो धीरे धीरे इससे जुड़े मिथक और क्रूर नियम एक एक करके भरभराने लगते है। अमेरिकी जेल में 16 साल गुजारने वाले लेखक जेरोम वाशिंगटन का मशहूर कथन है – “जेल में इंसान बने रहने के लिए जेल के नियमों को तोड़ना बहुत जरूरी है” ज्युलिअस फ्युचिक, न्युगी या थान्गो, वरवर राव, जार्ज जक्सन, नाजिम हिकमत जैसे दुनिया के तमाम लेखको ने जेल के नियमों को तोड़ते हुए ही क्रान्तिकारी रचनायें दी और अपने इंसान होने का सबूत दिया। यहां तक की तुर्की के मशहूर फिल्मकार ‘यिल्माज़ गुने’ ने अपनी कई सफल फिल्मों की स्क्रिप्ट जेल में ही लिखकर बाहर स्मगल की। यह बात तो और भी आश्चर्य में डालने वाली है की नाज़ी यातना शिविर में बंदियों ने शानदार धुनें बनाई है। इन्ही धुनों को बहुत मुश्किल से खोज कर इटली के म्यूजिक कंपोजर फ्रांसेस्को लेतोरो ने ‘दि लॉस्ट म्यूजिक’ नामक एल्बम निकाला है।
इससे भी आगे बढ़कर अमेरिका में अतिका जेल में जब ब्लैक पैंथर के कामरेडों की आमद बढ़ गयी तो 1971 में उन्होंने सारे नियम तोड़ते हुए जेल पर ही कब्जा कर लिया और 4 दिनों तक जेल को अपने कब्जे में रखा। हालाँकि इस इंसानियत की कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. इस विद्रोह में कुल 41 लोगों की जान गयी। इसी तरह 19-20 जून 1986 में पेरू में हुए जेल विद्रोह को कौन भूल सकता है, जिसमे क़रीब 300 माओवादियों ने अपनी जान कुर्बान करते हुए सत्ता के इस सबसे क्रूर गढ़ यानि जेल के परखच्चे उड़ा दिए थे। भारत में ही नवम्बर 2005 और दिसम्बर 2007 को हुए क्रमशः जहानाबाद जेल ब्रेक और दंतेवाड़ा जेल ब्रेक को कौन भूल सकता है।
आज कोविड-19 के दौरान भी दुनिया के कई देशों से जेल विद्रोह की खबरें आ रही है। इसी साल 23 मार्च को कोलंबिया की राजधानी बगोटा की जेल में हुए विद्रोह के कारण 22 बंदियों को अपनी जान गवानी पड़ी। इसी तरह पेरू में 11 और इटली में 7 बंदियों को अपनी जान गवानी पड़ी है। इसके अलावा अमेरिका, सिअरा लिओन, सुडान, वेनेजुअला, थाईलैंड, कांगो व अन्य देशों में भी कोविड के समय में ही जबरदस्त विद्रोह हुए है। और अनेक जाने गयी है. भारत में भी 21 मार्च को कोलकाता के दमदम जेल में हुए विद्रोह में एक बंदी की जान चली गई और जेल स्टाफ सहित कई लोग घायल हो गए। यानी आज भी बंदी जेलों में अपने इंसान होने का सबूत दिए जा रहे है और इसकी कीमत भी चुका रहे हैं
जो लोग इतिहास में यकीन रखते है, उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए की फ्रांसीसी क्रांति बास्तील के किले को तोड़ कर ही शुरू हुई थी, जो वस्तुतः एक जेल ही थी।
मनीष आज़ाद राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। 29 फरवरी, 2020 को 8 महीने बाद वे जेल से रिहा हो कर लौटे हैं।
An English translation of this piece will be made available on the blog shortly.
बहुत शानदार विश्लेषण। जेल सुधार की बात या जेल को सुधारगृह कहना तो उसी तरह है जैसे वर्तमान फासीवादी राज्यों को लोकतांत्रिक कहना। मनीष के कुछ ऑब्जर्वेशन को अपने अनुभव से रखना चाहूंगा।
जेल यातना के लिए ही होता है-
यह हमारे समाज की सामान्य समझ है। यह सिर्फ बन्दी नहीं मानते बल्कि यही सोच न्यायिक, पुलिस, प्रशासन, शासन व समाज के सामान्य बुद्धिजीवियों की भी है। हमने जब कानपुर जेल के एक अपेक्षाकृत अच्छे जेलर के समक्ष वहां के बुरे भोजन व्यवस्था को उठाया तो उन्होंने कहा कि, “हां यह खराब है। मैं सुधारूँगा। पर घर की तरह भोजन नहीं मिलेगा आपको याद रखना होगा।” कुछ साल बाद भी जब मैं एकदिन कंकड़ वाले भात और उबले सब्जी को लेकर अधीक्षक के ऑफिस गया तो वहां तीन अधीक्षकों के साथ एक सी ओ भी बैठे थे। उसमें सबसे यंग और अपेक्षाकृत ईमानदार अधीक्षक ने कहा कि इससे अच्छा भोजन नहीं मिल सकता। जबकि सी ओ ने चावल साफ करने की जरूरत स्वीकार किया। ऐसे ढेरों उदाहरण हैं। सिर्फ भोजन व्यवस्था में खुले भ्रस्टाचार के द्वारा कानपुर जैसे जेल में रोज कई लाखों की चोरी होती है। इसमें जेल से लेकर सत्ता के शीर्ष तक हिस्सा बंटता है।
जब मुझे तन्हाई बैरक में डाल दिया गया तो मैंने वहां की अमानवीय स्थितियों के व्यौरे के साथ प्रार्थना पत्र अपने ट्रायल जज को दिया। वे भी कानपुर कोर्ट के इमानदार जज थे। लॉ के ही अनुसार चलने वाले माने जाते। जब मेरे वकील ने उस तन्हाई बैरक में सांपों के बैरक तक मे आने और जान के खतरे को रखा तो जज ने कहा कि कोई पिकनिक में नहीं आए हैं। जेल है। मैं कुछ सुधार करवाऊंगा। जेल बंदियों के अधिकार पर चर्चित केस सुनील बत्रा का जिक्र जब हमने किया तो जज ने हंसते हुए कहा कि यह तो हम LLB करने के समय से सुनते आ रहे। मैं इसबात पर जोर देना चाहता हूँ कि ऐसी सोच सिर्फ भ्रष्ट और खराब अधिकारियों की नहीं बल्कि उसके सबसे अच्छे माने जाने वाले अधिकारियों की होती है। जेल के बाहर अपने एक मध्यवर्गीय व दलित पृष्ठभूमि के साथी से जब जेल में खाने वगैरह की समस्या रखा तो उसने भी कहा कि तब जेल का क्या मतलब होगा?
हमारे हमारा संविधान या दंड संहिताओं में भले सुंदर शब्दों में बिना दोषी साबित हुए को निर्दोष मानने की बात लिखी हो। परन्तु हकीकत तो यह है कि जेल सिर्फ यातना देने की, मानव की गरिमा को ध्वस्त करने की और आदमी को इंसान बनने के उलट यात्रा कराने की जगह होती है।
इसलिए राज्यसत्ता के चरित्र को बदले वगैर जेल सुधार की कल्पना महज काल्पनिक एक्सरसाइज है और कुछ मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के मानवीय बने रहने को भ्रम में डाले रखने की कवायद है।
जरूरत इसबात की है कि समाज के हर क्षेत्र की तरह जेल को हम सार्वजनिक विमर्श का विषय बनाएं।
मनीष आज़ाद का यह लेख इस विमर्श का अच्छा प्रस्थान बिंदु बन सकता है।