भारत की शैक्षिक संस्थाओं ने हमेशा से छात्र आंदोलनों को हतोत्साहित किया है। हालांकि यह अपने में ही शंका के योग्य है, इसका प्रभाव जो की छात्रों की समाज में छवि पर होता है, उसकी क्षति की सीमा उन् छात्र और उस शासन के क्रमशः धर्म और विचारधारा पर निर्भर है। जब नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 अधिनियमित हुआ, इससे हिंदुत्व BJP सरकार की मंशा स्पष्ट हो गयी। हर जगह इस कानून के विरोध को कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने पूरी कोशिश करी रोकने की, और केवल उत्तर प्रदेश में ही २३ लोगों की मौत गोली लगने के कारण हुई। इस कोशिश का गंभीर रूप सामने आया जामिया मिलिया इस्लामिया (जामिया) और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (ए.एम.यू) के छात्रों के प्रति। जामिआ और ए.एम.यू के छात्रों ने इसका विरोध किया तो उन्हे पुलिस बर्बरता का सामना करना पड़ा। इसके अतिरिक्त, दिल्ली में फ़रवरी २०२० में हुए दंगो से सम्बंधित गिरफ्तारियां भी इसी आंदोलन और ख़ास तौर से मुस्लिम छात्रों द्वारा संचालित आंदोलन से जुडी हुई हैं। इस सब में, छात्रों द्वारा प्रदर्शन में छात्रों की भागीदारी पर शैक्षिक संस्थानों का विरोध और मीडिया और सरकार द्वारा छात्रों को राष्ट्र विरोधी तत्वों के रूप में देखा जाना नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
भारत में हम शैक्षिक स्थानों के भीतर संवैधानिक स्वतंत्रता पर अंकुश को बढ़ते देख रहे हैं। यह विशेष रूप से भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में है, जिसमें असहमति दर्शाने का अधिकार सम्मिलित है। 15 दिसंबर 2019 को जामिया और ए.एम.यू के परिसर कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा बल के क्रूर उपयोग के स्थल बन गए, जब विद्यार्थी सामूहिक रूप से नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 और दो दिन पूर्व हुई प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की बर्बरता का विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। गवाही और वीडियोग्राफी के रूप में अच्छी तरह से प्रलेखित साक्ष्य बताते हैं कि जब जामिया और ए.एम.यू के छात्र परिसरों के अंदर पीछे हट चुके थे उसके बाद भी पुलिस ने लंबे समय तक बल प्रयोग जारी रखा।
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